अधूरी कहानी: एक लड़की की टूटे सपनों से उठती आवाज़

एक लड़की की टूटे सपनों से उठती आवाज़

 मैं वो लड़की हूँ जो दुनिया के शोर में कहीं चुप हो चुकी है।
लोगों ने मेरे सपनों को मेरी इज़्ज़त से जोड़ दिया और मैं टूटती चली गई।
आज भी साँस लेती हूँ, पर उम्मीदें नहीं… बस इतना सपना बाकी है —
कोई मुझे मेरे रूप से नहीं, मेरी रूह से प्यार करे।
ये मेरी अधूरी कहानी नहीं — मेरी फिर से जन्म लेने की कोशिश है।

एक लड़की की टूटे सपनों से उठती आवाज़

मैं कौन हूं?

मैं वही ख़्वाब हूँ… जिसे किसी ने पलकों पे सजाया था,
मैं वही लम्हा हूँ… जिसे रब ने खुद से मुस्कुराकर बनाया था।
पर वक्त की आंधी में सब रंग बिखर गए मेरे,
जो सपने आँखों में थे — अब उम्मीदों से उभर गए मेरे।

मैं आज भी वहीं हूँ… जहाँ पहली बार दिल धड़का था,
पर अब दिल की धड़कनों में टूटे अरमानों का धुंआ भटका है।
ना कोई आवाज़ सुनता है, ना कोई हमदर्द नज़र आता है,
ये कहानी नहीं — ज़ख़्म है… जो अब भी हर पल ताज़ा जलाता है।

शायद मैं अधूरा नहीं… बस मेरी मोहब्बत बेमिसाल थी,
दुनिया छोटी थी — और मेरी चाहत बहुत विशाल थी।

घुटती हुई ख़ामोशी

मैं आज भी वो ही हूँ… पर अब आईने में खुद को पहचान नहीं पाती,
जिस्म से नहीं — रूह से लहूलुहान हो चुकी हूँ मैं रातों की बरसात में।
दुनिया को अगर भनक लगे सच की तो शायद मेरा नाम भी मिटा दे,
इस रिश्तों के बाजार में इज़्ज़त बिकती है — और मेरी  भी लुटा दे।

मैंने किसी को कुछ नहीं कहा… पर खामोशी चिल्ला-चिल्ला कर मरती रही,
हर इंतज़ार में बस यही डर — अगर बता दूँ तो ज़िन्दगी भर शर्मसी रहूँगी।
अपनी ही साँसों के बीच अब मैं अजनबी सी हो गई हूँ,
ना रो सकती हूँ खुलकर, ना जी सकती हूँ — बस जंग बन गई हूँ।

शायद अब अधूरी रहना ही मेरी किस्मत का आखिरी मुकाम है,
क्योंकि इस समाज में “सच्चाई” नहीं — “कलंक” ही मेरा नाम है।

राख में दबी आग

हाँ… मेरा वजूद टूटा है, मगर मैं पूरी तरह बिखरी नहीं हूँ अब भी,
इस राख के नीचे कहीं एक चिंगारी जिंदा है — जो अभी मरी नहीं हूँ अब भी।
समाज सवाल उठाएगा — पर मैं आज पहली बार खुद से सवाल करूँगी,
किस गुनाह की सज़ा मुझे मिली? अब मैं उत्तर खुद से निकालकर जियूँगी।

जिस इज़्ज़त को दुनिया ने छीन लिया — वो रब ने कभी छीनी ही नहीं,
दर्द मेरा अपराध नहीं — इस ज़ख़्म ने बस मुझे गहरी ज़मीन दी अभी।
मैं डर नहीं बनूँगी — मैं दस्तावेज़ बनूँगी हर उस लड़की की जो रोई है,
मेरी अधूरी कहानी अब इंसाफ़ की तलाश में, आवाज़ बनकर खोई है।

अगर मेरी रूह को रौंदा गया — तो मेरी रूह ही हथियार बनेगी,
नया जन्म लूँगी मैं — पर इस बार मेरी ख़ामोशी ललकार बनेगी.

शक्ति की पहली साँस

अब खामोश नहीं रहूँगी… अब डर के आगे झुकना नहीं है,
आँसू सूख गए होंगे — पर रूह अभी भी जिंदा है, रुकना नहीं है।
जिस ग़म ने मुझे तोड़ा — वही अब मेरा हथियार बनेगा,
मैं राख नहीं बनूँगी — मेरी हर साँस में अब अंगार जलेगा।

हाँ, दुनिया मुझे झुकी हुई नज़रों से देखेगी — पर मैं झुकूँगी नहीं,
मेरी गलती नहीं थी — अब ये बात मैं खुद से छुपाऊँगी नहीं।
जिस रात ने मुझे तोड़ा — उस रात से ही मैं रोशनी माँग लूँगी,
अब डर को दुआ नहीं — हिम्मत को अपनी साथी मान लूँगी।

आज मेरी कहानी दर्द से नहीं— दावे से शुरू होगी,
मैं अधूरी नहीं अब… पहली बार खुद को “लड़ने वाली” कहूँगी।

 

फूलों से मिली रोशनी

फूलों से मिली रोशनी

बिस्तर के कोने पर बैठी मैं… खिड़की से बाहर झाँकती हूँ,
वो फूल रात में बंद हुए थे — पर आज फिर से मुस्कुराते देखती हूँ।
कल तक लगे थे थककर झुक गए हैं — मगर सुबह फिर उठ खड़े हुए,
यही मंजर मेरे दिल में एक नई उम्मीद के बीज बो गया है।

सोचती हूँ… अगर वो फूल अँधेरी रात से हारकर भी खिल सकते हैं,
तो मैं क्यों डरूँ इन ज़ख़्मों से — मैं भी फिर से जीवित मिल सकती हूँ।
उनकी ख़ुशबू मुझे धीरे से कहती है — “तू टूटी नहीं, बस थकी हुई है”,
तेरे भीतर भी एक सुबह है — जो अभी जागने की घड़ी है।

मैं उठूँगी फिर… उसी फूलों की तरह — नर्मी से, पर यकीन के साथ,
ये कहानी ख़त्म नहीं होगी यहाँ — यहीं से शुरू होगी मेरी नई बात।

कल्पना की रोशनी

जैसे सुबह की धूप हर कली को छूकर उसे मुस्कान दे जाती है,
वैसे ही कोई आए — जो मेरी रूह को भी रौशनी सिखा जाए।
मैं चाहती हूँ कोई थाम ले मुझे उस नरम भरोसे की तरह,
जो कहे — “तू टूटी नहीं है… तुझे बस फिर से खिलना है जरा।”

वो मेरी चुप्पियों को सुने — बिना सवाल किए, बिना डराए,
मेरे ज़ख़्मों को कमज़ोरी नहीं — सबूत-ए-जंग समझ पाए।
मैं खुद को नहीं सौंपना चाहती… बस महसूस करना चाहती हूँ,
कि किसी की दुआ बनना भी इबादत का एक रास्ता होती है।

मेरी ये कल्पना कोई मोहब्बत नहीं… ये बस उजाला माँगती है,
बस कोई इतना हो जाए… जो मेरी सुबह को फिर से “सुबह” बना जाए।

रूह से चाहत

मैं ये नहीं चाहती कि कोई मुझे मेरे रूप से चाहे,
दिल चाहता है — कोई मेरी रूह में उतरकर मुझे पढ़े, मुझे समझे।
जिस्म से नहीं — मेरी सच्चाई से मोहब्बत करने वाला हो,
जिसकी नज़र मुझे “सुंदर” नहीं — “पवित्र” कहने वाली हो।

जो मेरी टूटी आवाज़ में भी एक संगीत सुन ले कभी,
जिसे मेरे निशानों में हार नहीं — हिम्मत नज़र आए सभी।
मेरे आँसू देखकर कमज़ोर नहीं — और मज़बूत हो जाए वो,
जो मुझे सहारा नहीं — यकीन महसूस कराए वो।

मैं रूप की नहीं… रूह की मौहब्बत की तलबगार हूँ,
मेरे जिस्म नहीं — मेरे ज़ख़्म को भी प्यार मिले… बस इतना इकरार हूँ।

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